vat savitri vrat vidhi katha aur mahatva

वट सावित्री व्रत विधि कथा और महत्त्व

वट सावित्री व्रत हिन्दू विक्रमी सम्वत पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. यह व्रत सुहागन स्त्रियां अपने पति की लम्बी आयु और उसकी सुख समृद्धि की मंगल कामना हेतु रखती है.   

हिंदू धर्म में एक स्त्री के लिए उसका पति जीवन में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है. इसीलिए हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाली महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए कई व्रत रखती हैं, जैसे हरियाली तीज, करवा चौथ, वैट सावित्री व्रत आदि. तो ऐसे ही व्रतों में से एक व्रत है वट सावित्री व्रत, जो भारतीय सभ्यता संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. 

हिंदू धर्म में शादी के बंधन को एक जन्म का ना मानकर जन्मों-जन्मांतर तक का माना गया है, शादी जो कि एक पवित्र बंधन है. और इस बंधन की पवित्रता व महत्वता बनी रहे, पति-पत्नी का एक दूसरे के लिए प्यार व विश्वास बना रहे. इसलिए सनातन धर्म में इस सम्बन्ध का पोषण करने के लिए अनेक व्रत और त्योहार समय समय पर मनाए जाते हैं जो पति-पत्नी को एक दूसरे का महत्व समझाते हैं. ऐसा ही एक प्रमुख व्रत है वट सावित्री व्रत जिसके विषय में महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है. 

वट सावित्री व्रत के दिन विवाहित महिलाएं अपने सुहाग की दीर्घायु के लिए व्रत-उपासना करती हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जो स्त्री वट सावित्री व्रत को सच्ची निष्ठा से रखती है उसे न केवल पुण्य की प्राप्ति होती है बल्कि उसके पति पर आई सभी परेशानियां भी दूर हो जाती हैं. कहा जाता है कि अपने पतिव्रत धर्म के बल से ही माता सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राणों को यमराज भी से छुड़ाकर ले आई थी. उसी कथा की प्रेरणा से इस व्रत का महिलाओं के बीच विशेष महत्व है.

व्रत के इस दिन वट (बड़, बरगद) के पेड़ का पूजन होता है. वट सावित्री व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखंड सुख सौभाग्य की मंगलकामना हेतु करती हैं.

वट सावित्री का व्रत एक अद्भुत व्रत है जिसमें वट यानी बरगद और पीपल के पेड़ों की पूजा की जाती है, तथा व्रत रखने वाली महिलाएं उनकी परिक्रमा करते हुए उनके चारों तरफ सात बार रक्षा धागा बांधकर अपने अखंड सुख-सौभाग्य की कुशलता की प्रार्थना करती है. 

भारत देश में प्रकृति से एक विशेष जुड़ाव और उसकी सेवा के साथ अपने मंगल की भावना जोड़कर अधिकांशतः व्रत, पर्व, त्यौहार मनाये जाते है. विभिन्न पेड़-पौधों को पूजने की प्रथा प्राचीन काल से भारत में रही ही है. क्योंकि हिन्दू धर्म ग्रंथों में अलग-अलग पेड़ पौधों में अलग-अलग देवी-देवताओं का निवास बताया गया है.

सावित्री व्रत की पूजा वट वृक्ष के नीचे की जाती है. वट सावित्री व्रत की पूजा के लिए व्रती अपने आस-पास एक वट वृक्ष ढूंढ लें, जिसके नीचे बैठकर उसको पूजा करनी है. इस पूजा के लिए अन्य आवश्यक  सामग्री निम्नलिखित है -

बरगद का फल, 
सावित्री और सत्यवान की मूर्ति या तस्वीर,
भिगोया हुआ काला चना,
कलावा,
सफेद कच्चा सूत,
रक्षासूत्र,
बांस का पंखा,
सवा मीटर का कपड़ा,
लाल और पीले फूल,
मिठाई,
बताशा,
फल,
धूप,
दीपक,
अगरबत्ती,
मिट्टी का दीया,
सिंदूर,
अक्षत,
रोली,
पान का पत्ता,
सुपारी,
नारियल,
श्रृंगार सामग्री,
जल कलश,
पूजा की थाली,
वट सावित्री व्रत कथा की पुस्तक आदि.

इस दिन भोग के लिए पकवान बनाये जाते हैं, जिसमें से शाम को बायना निकालकर अपने से बड़ों को दिया जाता है. इसके पश्चात रात्रि के समय महिलाओं द्वारा व्रत खोला जाता है. 

वट सावित्री व्रत कथा -

विवाहित महिलाओं के बीच अत्यधिक प्रचलित ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन मनाये जाने वाले वट सावित्री व्रत की कथा के अनुसार, एक समय भद्र देश के  राजा हुए थे, अश्वपति. भद्र देश के उन राजा अश्वपति की कोई संतान न थी, तो उन्होंने उन्होंने संतान की प्राप्ति हेतू मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ देते थे, और यह क्रम अठारह वर्षों तक चला. 

राजा की तपस्या से सावित्री देवी ने प्रकट होकर अश्वपति को वरदान दिया कि राजन तेरे यहां एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी. कुछ समय पश्चात ऐसा ही हुआ,  सावित्रीदेवी की कृपा से राजा अश्वपति के यहाँ एक सुन्दर कन्या ने जन्म लिया. सावित्रीदेवी की कृपा से संतान होने के कारण राजा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखा.

यह कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान हुई, अब इसके लिए योग्य वर की तलाश शुरू हुई तो उचित वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता राजा अश्वपति बहुत दुःखी थे. अंततः उन्होंने सावित्री को स्वयं अपने लिए वर तलाशने को भेजा.

सुयोग्य वर की तलाश में सावित्री तपोवन में भटक रही थी तो उसे वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन मिले, जिनका राज्य किसी ने छीन लिया था. राजा द्युमत्सेन का एक पुत्र था, जिसका नाम सत्यवान था. सत्यवान को सावित्री ने अपने योग्य पाया और पति के रूप में उसका वरण किया. 

देवऋषि नारद को जब यह बात पता चली तो वह राजा अश्वपति के पास पहुंचे और कहा कि हे राजन, सत्यवान गुणवान हैं, धर्मात्मा हैं और बलवान भी हैं, किन्तु  उसकी आयु बहुत छोटी है, वह अल्पायु हैं, और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी. अतः आप सावित्री से उसका विवाह करके यह क्या अनर्थ कर रहे है. 

नारद मुनि की बात सुनकर राजा अश्वपति गहरी चिंता में डूब गए. पुत्री सावित्री ने जब पिता से उनकी चिंता का कारण पूछा, तो राजा ने कहा, पुत्री तुमने जिस राजकुमार सत्यवान को अपने वर के रूप में चुना है, वह अल्पायु हैं. इसलिए तुम्हे किसी और को अपना जीवन साथी बनाना चाहिए. इस पर सावित्री ने कहा कि पिताजी, आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती हैं, राजा एक बार ही आज्ञा देता है और पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं और कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है. अतः मेरा निर्णय अटल है. 

इस प्रकार सावित्री हठ करने लगीं और बोलीं कि मैं सत्यवान से ही विवाह करूंगी. आखिरकार राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया. 
विवाह के पश्चात सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा करने लगी और समय बीतता चला गया. चूंकि नारद मुनि ने सावित्री को पहले ही सत्यवान की मृत्यु के दिन के बारे में बता दिया था तो जैसे जैसे वह दिन करीब आने लगा, सावित्री अधीर होने लगीं. जब केवल तीन दिन रह गए तो सावित्री ने पहले से ही उपवास करना शुरू कर दिया. फिर नारद मुनि द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया.

नित्य प्रतिदिन की तरह सत्यवान उस दिन भी लकड़ी काटने जंगल जाने लगे तो सावित्री भी उनके साथ में गई. जंगल में पहुंचकर सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढे, तभी उनके सिर में तेज दर्द होने लगा, दर्द से व्याकुल सत्यवान पेड़ से नीचे उतर गये, सावित्री को आने वाले संकट का आभास हो चला था. सत्यवान के सिर को गोद में रखकर सावित्री सत्यवान का सिर सहलाने लगीं, तभी वहां यमराज आ गए और सत्यवान को अपने साथ ले जाने लगे. यह सब देख सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं.

सावित्री को आता देख यमराज ने उसको समझाने की कोशिश की, कि यही विधि का विधान है, तू वापस लौट जा, लेकिन सावित्री नहीं मानी. अंततः सावित्री जब यमराज के बहुत समझाने और वापस भेजने के सभी प्रयासों के बाद भी नहीं मानी तो सावित्री की निष्ठा और पतिपरायणता से प्रसन्न होकर यमराज ने सावित्री से कहा कि हे देवी, तुम धन्य हो. तुम मुझसे कोई भी वरदान मांग लो.

यमराज के कहने पर सावित्री ने यमराज से तीन वरदान मांगे जो इस प्रकार थे -

पहले वरदान में सावित्री ने कहा कि मेरे सास-ससुर वनवासी और अंधे हैं, उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें. यमराज ने कहा ऐसा ही होगा, जाओ अब लौट जाओ. लेकिन सावित्री अपने पति सत्यवान के पीछे-पीछे चलती रहीं. यमराज ने कहा देवी तुम वापस जाओ, सावित्री ने यमराज से कहा भगवन मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है, पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है. यह सुनकर यमराज ने फिर से सावित्री को एक और वर मांगने के लिए कहा.

दूसरे वरदान में सावित्री बोलीं हमारे ससुर का राज्य छिन गया है, उसे पुन: वापस दिला दें. यमराज ने सावित्री को यह वरदान भी दे दिया और कहा अब तुम लौट जाओ. लेकिन सावित्री नहीं मानी और पीछे-पीछे चलती रहीं. यमराज ने सावित्री को एक और वरदान मांगने को कहा. 

तीसरे वरदान में सावित्री ने अपने लिए सौ संतानों और सौभाग्य का वरदान मांगा, यमराज ने यह वरदान भी सावित्री को दे दिया. वरदान लेकर सावित्री ने यमराज से कहा कि प्रभु मैं एक पतिव्रता पत्नी हूं और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया है. किन्तु यदि आप मेरे पति को ले जाएंगे तो यह कैसे संभव होगा. यह सुनकर आखिरकार यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े.

यमराज अंतध्यान हो गए और सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आ गई जहां उसके पति का मृत शरीर पड़ा था. तभी सत्यवान जीवंत हो गया और दोनों खुशी-खुशी अपने राज्य की ओर चल पड़े. दोनों जब घर पहुंचे तो देखा कि माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है, और उन्हें अपना खोया राज्य भी मिल गया है. इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे.

अतः पतिव्रता सावित्री के अनुरूप ही, पहले अपने पितरों और सास-ससुर का उचित पूजन करने के साथ ही अन्य विधियों को प्रारंभ करें. वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपवासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो वो टल जाता है.

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