सनातन धर्म को अंधविश्वास और रूढ़िवादिता कह देने वाले कथित पढ़े लिखे साइंस को मानने वाले लोग थोड़ा समय निकाले और जानने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि सनातन धर्म की नीव में गहन विज्ञान और प्रकृति संरक्षण और सेवा निहितार्थ रहा है. सनातन धर्म के हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों को पता था कि किस बीमारी का क्या इलाज है, कौन सी चीज खाने लायक है कौन सी नहीं.
हमारे दैनिक धार्मिक क्रियाकलापों में वैज्ञानिक तथ्य और प्रकृति संरक्षण का महत्त्व सदैव निहित रहा है. जिसकी स्पष्टता यदि हम खोजने जाते है तो मिल ही जाते है ऐसा ही एक धार्मिक क्रियाकलाप है पितृपक्ष में कौवों के लिए खीर बनाना.
कहा जाता है कि पितृपक्ष में कौवों को खीर खिलाएंगे तो हमारे पूर्वजों को मिल जाएगा. आपने किसी को भी पीपल और बरगद के पौधे लगाते हुए नहीं देखा होगा. न ही पीपल और बड़ के बीज देखे होंगे, बरगद या पीपल की कलम को आप जितनी चाहे रोपने की कोशिश करे, परंतु यह नहीं लगेगी. इसका कारण है प्रकृति/कुदरत ने इन दोनों बहु उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए कुछ अलग व्यवस्था की हुई है.
इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होता हैं. जिसके बाद कौवे जहां-जहां मल त्याग यानि कि बीट करते हैं, वहां पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं.
पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो राउंड द क्लॉक यानि 24 घंटे ऑक्सीजन O2 छोड़ता है तो बरगद के औषधि गुणों की महिमा अपरम्पार है. अब अगर इन दोनों वृक्षों को उगाना है तो यह प्रक्रिया बिना कौवे की सहायता के संभव नहीं है, इसलिए कौवे को बचाना पड़ेगा और यह कैसे होगा.
क्योंकि मादा कौआ भादो महीने में अंडा देती है और नवजात बच्चा पैदा होता है तो इस नयी पीढ़ी के उपयोगी पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी होता है. इसलिए ऋषि मुनियों ने कौवों के नवजात बच्चों के लिए हर घर की छत पर श्राघ्द के रूप मे पौष्टिक आहार रखने की व्यवस्था बनायीं.
जिससे कि कौवों की नई जनरेशन का सही प्रकार से पालन पोषण हो जाये, इसलिए पितृ पक्ष के दौरान श्राघ्द करना प्रकृति के रक्षण के लिए बहुत आवश्यक क्रियाकलाप है.
जब कभी हम बरगद और पीपल के पेड़ों को देहते है तो हमें अपने पूर्वज याद आएंगे ही क्योंकि उन्होंने पितृ पक्ष के समय श्राद्ध कर्म किया था, इसीलिए यह दोनों उपयोगी पेड़ आज भी हमें देखाई देते हैं.